धर्मराज्य

राजधानी देहरादून ने केदारघाटी एवं ऊपरी बद्रीघाटी को लेकर एक पुस्तक का विमोचन किया गया…….

उत्तराखण्ड राज्य की सम्पूर्ण केदारपाटी एवं उगरी बदरीघाटी में हजारों वर्षों से महाभारत कालीन पण्‌यार्त, अनुष्ठान और व्यूह रचनाओं को पारम्परिक लोकोत्सव के रूप में जागोजित किया जाता रहा है। एक और पण्ड्‌वार्स (पाण्डवों से सम्बन्धित वार्ता) के अन्तर्गत महाभारत के विभिन्न प्ररोगों, कथाओं और आसमानों को पाण्डवाणी गायन के माध्यम से श्रुति एवं स्मृति परम्परा के आधार पर पीढ़ी दर पीढ़ी अमेसित किया जाता है तो लोक कल्याण की टि से विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान भी सम्पन्न किए जाते हैं। 15 दिन से 45 दिन तक चलने वाले इस लोकोलाय को (पूर्ण अनुष्ठानिक, अर्द्धअनुष्ठानिक और गैर अनुष्वानिका उपर्युक्त तीन तरह मनाया जाता है।

इस पुस्तक के माध्यम से उत्तराखण्ड की केदारघाटी में मंचित होने वाली व्यूह रचनाओं जैसे चक्रव्यूह, कमलव्यूह, गकरव्यूह, विन्दुव्यूह, हाथि दुर्योध, गैंडा-कोथिक आदि गहानाटयों एवं लघुनाटयों का गढ़वाली बोली में लेखन करके और विभिन्न पात्रों के संवादों में लोक धुनों को सम्मिलित करके उनके संरक्षण एवं संग्बर्द्धन में भी महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है।

महाभारत कालीन व्यूहों की रचना, शास्तीय विधि से संसार भर में केवल केदारघाटी में ही होती देखी गई है। परन्तु आधुनिकता की अंधी दौड़ के कारण यहाँ भव्य सांस्कृतिक विरारात लोम, रो धीरे-धीरे रामाप्त होने के कगार पर पहुंच रही है। पूर्व में इरा भव्य एवं अलौकिका सांस्कृतिक विरारात पर पारशी थिएटर का असर पड़ने के कारणसांस्कृतिक पलायन का खतराने गंडराने लगा था। क्योंकि उरा कालखण्ड में इन नाटयों की वेशभूषा और भाषा भी लोक आधारित न होकर पारसी थिएटरों के प्रभाव से ग्रस्त हो गई थी। अतः लोक पर आधारित वेशभूषा तथा लोकाधारित संवादों में रचना, गंचन एवं निर्देशन के द्वारा, निश्चित् रूप से इन पौराणिक महानाट्यों को संरक्षित एवं सम्बर्द्धित करने में उक्त पुस्तक को गहत्वपूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।

उत्तराखण्ड राज्य की केदारघाटी में पीढ़ी दर पीढ़ी अग्ररार होने वाली अपने ढंग की यह अकेली नाट्य विधा अब पूर्ण रूप से सुरक्षित एवं संरक्षित है। लोक-संस्कृति की यह नायाब नाट्य- विथा वर्तमान में देश-परदेश तक अपना परचम लहरा चुकी है। अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है कि उत्तराखण्ड के दो सुप्रसिद्ध नाट्य-कर्मियों को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्राप्त करवाने में महाभारत आधारित इन नाट्य विधाओं का भी बड़ा योगदान रहा है।

महाभारत मण्डाण पण्ड्वार्त अनुष्ठान अर व्यूह रचणा पुस्तक में उल्लिखित चक्रव्यूह महानाट्य का पहला मंचन 25 फरवरी 1995 को उत्तराखण्ड आंदोलन के पक्षात्, राज्य आंदोलनकारियों के लिए समर्पित कौथिक-95 जो कि नंदादेवी कला संगम एवं अखिल गढ़वाल महासभा के संयुक्त तत्वधान में आयोजित था, उस दौरान परेड ग्राउंड देहरादून में संपन्न हुआ था। महाभारत कालीन युद्ध विधा पर आधारित गढ़वाली चक्रव्यूह का यह प्रथम एवं ऐतिहासिक मंचन था। इस नाटक का निर्देशन भी मेरे ही द्वारा किया गया था। प्रथम मंचन के 6 साल बाद मेरे साथ दो अन्य नाट्य- प्रेमियों द्वारा इसमें नाटकीय प्रयोग भी किए गए थे। प्रथम मंचन से लेकर अब तक इस महानाट्य के कुल मिलाकर डेड हजार से अधिक मंचन हो चुके हैं।

उत्तराखण्ड की केदारघाटी में मंचित होने वाली दूसरी मुख्य नाट्यविद्या कमलव्यूह है। महानाट्य की सभी विशेषताओं को समेटे यह महानाट्य, महाभारत युद्ध के चौदहवें दिन की कथा पर आधारित है। चक्रव्यूह में अभिमन्यु के वध का समाचार सुनकर अर्जुन प्रतिज्ञा करते हैं कि कल का सूरज अस्त होने से पूर्व में जयद्रथ का वध कर दूंगा, अन्यथा अग्नि चिता जलाकर स्वयं को भस्म कर दूंगा। चक्रव्यूह महानाट्य के प्रथम मंचन से लगभग 15 वर्षों के पश्चात् ही 25 दिसंबर 2010 को कमलव्यूह का प्रथम मंचन राइ का० गुप्तकाशी के मैदान में सम्भव हो सका था।

व्यूह- रचनाओं की श्रृंखला में इस व्यूह को महाविकट व्यूह की श्रेणी में रखा जाता है। जहां चक्रव्यूह में सात द्वार होते हैं, वहीं कमलव्यूह में 14 द्वार होते हैं। एक ही दिन में कमलव्यूह भेदन कोई भी महारथी नहीं कर सकता था।

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